पिछले हफ्ते मैं मुंबई के ट्रिप पर जा पहुचा, कुछ काम था.... पर मुंबई को नज़दीक से छूने का मौका कुछ यूँ मिला कि बयाँ करूँ तो शायद शब्द कम पड़ने लगें.... अपने सफ़र के दौरान छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से गुजरा तो पाया सब कुछ रोज़ मर्रा कि तरह बीत रहा था. वो पुराना स्टेशन जो दशकों से मुंबई कि पहचान रहा है आज भी अपनी कशिश लिए खड़ा था. जीव और जीवन कि रफ़्तार यहाँ थमने का नाम नहीं लेती.... काम से समय निकाल कर मैं होटल ताज कि गलियारे से गुज़रा तो पाया कि मुंबई पिछले साल के आतंकी हमलों के सदमे से उबरी नहीं थी. वो आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी, दीवारों पे दगे गोलियों के निशाँ अभी मिट भी नहीं पाए थे.... एक अंतहीन रंगों रोगन का काम चल रहा था जो इस वाकये को उसके ज़ेहन से कतई मिटा ही नहीं पा रहा था.... दूसरी तरफ खड़ा गेट-वे ऑफ़ इंडिया उसका ढाढस बढ़ाता हुआ सा दिखा.. शायद उसपर गोलियां कुछ कम चली थीं. लेकिन आज भी ये रुदन दृश्य देखने लोगों का मज़मा लगा था और लगता ही रहेगा, न तो किसी को उनकी पीड़ा का एहसास है और न ही समझने की इक्षा....
कुल बात ये है..आम बात ये है कि हम सबको उनकी संवेदना का आभास नहीं है.. आज भी ये राष्ट्रिय धरोहर अपना न्याय ढूंढ़ रहे हैं.... और दूसरी ओर इसकी आड़ में अन्तर्रष्ट्रीय राजनीति कि रोटियां सेकी जा रही हैं.
bat to sahi hai,sab sochte bhi hain lekin amal me kaun laye. visit on my blog http://halchalekit.blogspot.com
ReplyDeleteshat pratishat sachhai hai, tripathy sahab....
ReplyDelete