Monday, December 2, 2013

इंटरनेट के महारथी...

जब इंटरनेट की इस दुनिया का नामकरण ‘‘सोशल मीडिया’’ नहीं हुआ था और फेसबुक का नामोनिशान भी नहीं था, उस वक्त भी ऑर्कुट जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर जाति, नस्ल, राजनीति और धर्म अपनी धमक जता चुके थे.

फेसबुक और ट्विटर ने इन रंगों को और निखार दिया. बौद्धिक बहस का वामपंथी लाल निशान भले ही अपनी जमीनी राजनीति की तरह आभासीय दुनिया में भी हाशिए पर हो, लेकिन ई-लोकतंत्र में भगवा, नीला, हरा हर रंग हावी है.

अगर एक तरफ ‘‘सेकुलर इंडिया’’ का विरोध और हिंदू राष्ट्रवाद की पैरोकारी होती है तो दूसरी तरफ सीरिया से लेकर म्यांमार और मुजफ्फरनगर तक मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों का मुस्लिम प्रतिरोध भी है.

एक तरफ अगर आरक्षण विरोधी मोर्चा डटा है तो दूसरी तरफ आरक्षण समर्थकों का कुनबा है. अगर ब्राह्मणवाद जोर से शोर कर रहा है तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था का निंदा प्रस्ताव भी कमजोर आवाज में नहीं पारित किया जा रहा.

राष्ट्रवादी समूह अगर मोदीवाद को मुस्लिम जेहाद का विकल्प बता रहा है तो वहीं मुस्लिम समुदाय की नजर में जीत आखिरकार हुसैनियों की ही होगी, भले ही उनकी संख्या कम क्यों न हो.

मुसलमानों के लिए समर्पित फेसबुक का इंडियन मुस्लिम पेज फेसबुक स्टार नरेंद्र मोदी के पीएम न बन पाने के दस कारण बताता है और मुसलमानों से ‘‘मोदी हराओ’’ एजेंडे पर काम करने की खुली अपील भी करता है.

इसके साथ ही वह उन मुसलमानों को धोखेबाज बताने की मुहिम भी चलाता है, जो मोदी के लिए मुस्लिम टोपी पहनते हैं. फेसबुक का यह इंडियन मुस्लिम पेज सिर्फ सियासत की बात करता है और फेसबुक की इस मुस्लिम सियासत में उसके साथ करीब दो लाख लोग मौजूद हैं.

हालांकि शुरुआत में सोशल नेटवर्किंग के लिए मैदान में उतरे फेसबुक जैसे सोशल मीडिया साइट के लिए ‘‘पॉलिटिक्स’’ कोई फोकस एरिया नहीं था, लेकिन आज कारोबार और खेल के अलावा ‘‘पॉलिटिक्स’’ आश्चर्यजनक रूप से सोशल मीडिया का सबसे पसंदीदा शगल बन गया है.

सफलता के ये वे क्षेत्र हैं, जिनकी वैश्विक स्तर पर गणना की जाती है और रिकॉर्ड तैयार किया जाता है. लेकिन ऐसा कौन-सा जातीय समूह, नस्लीय समूह और धार्मिक समूह है, जो फेसबुक पर नहीं है?
बीते साल हिस्ट्री चौनल ने जब ग्रेटेस्ट इंडियन की खोज शुरू की तो ऑनलाइन मीडिया ने जमकर भागीदारी की.

नतीजा, जूरी की नजर में गांधी के बाद सबसे महान भारतीय जवाहरलाल नेहरू नजर आए, लेकिन इंटरनेट जनता ने गांधी के बाद डॉ. आंबेडकर को देश का सबसे बड़ा सपूत बताया. नेहरू आखिरी पायदान पर आ गए. सोशल मीडिया की दुनिया में बात इतने से बनी नहीं.

लंबे समय तक ऑनलाइन दुनिया में यह बहस बनी रही कि डॉ. आंबेडकर को गांधी के बाद सबसे महान क्यों बताया जा रहा है? डॉ. आंबेडकर गांधी के बाद नहीं, बल्कि गांधी से भी बड़े भारतीय हैं.

डॉ. आंबेडकर को समर्पित दर्जनों फेसबुक पेज में से एक पेज इस नाम से मौजूद है, जो आंबेडकर को भारत का पहला महान भारतीय बताता है. बहस अब भी जारी है और बहस के बंद होने का कोई कारण नजर नहीं आता.

ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर कठोर प्रहार करती ऑनलाइन दुनिया के दलित चिंतकों की तीखी टिप्पणियां सचमुच बेबाक और बेलगाम होती हैं. कम-से-कम ऑनलाइन दलित चिंतन में ब्राह्मणवाद अक्सर बेबस नजर आने लगता है.

लेकिन अकेले नीला असरदार है, ऐसा भी नहीं है. हिंदू राष्ट्रवाद के पैरोकारों की फौज तो है ही, देवबंद का दारूल उलूम भी दम और दावे के साथ मौजूद है. इन दावों-प्रतिदावों के बीच भले ही बौद्धिक साम्यवाद कमोबेश नदारद नजर आए, लेकिन बहस का यह नया कॉफीहाउस निरा नाकारा या एकरंगा बिलकुल नहीं है.

भारत में फेसबुक ने नरेंद्र मोदी को स्थापित किया या फिर नरेंद्र मोदी ने फेसबुक को, इसका निर्णायक उत्तर खोज पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. क्योंकि भारत में फेसबुक और फेसबुक पर नरेंद्र मोदी कमोबेश साथ-साथ ही आए थे.

नरेंद्र मोदी के पोज और पेज इतने प्रभावशाली हो जाएंगे कि पांच साल में सबसे बड़ी फेसबुक आबादी उन्हें लाइक करने लगेगी, यह शायद तब किसी ने सोचा नहीं होगा. लेकिन जैसा कि सोशल मीडिया की दुनिया का सत्य है, यहां पहला विजेता वह है, जो सबसे पहले पहल कर देता है.

नरेंद्र मोदी के साथ भी यही हुआ. उनकी पहल बहुत पहले हुई, जिसका परिणाम यह कि आज फेसबुक पर उनके 57,00,000 से अधिक फॉलोअर हैं. हालांकि ट्विटर पर दलाई लामा के 80,00,000 फॉलोअरों के मुकाबले यह संख्या बहुत कम है, लेकिन ट्विटर पर भी अब नरेंद्र मोदी शशि थरूर और मनमोहन सिंह से बड़ी राजनीतिक शख्सियत बन चुके हैं.

शायद इसी कारण फेसबुक पर ‘‘वैचारिक फासीवाद’’ की दुहाई दी जाने लगी हो, लेकिन फेसबुक पर ‘‘नमो’’ नाम का क्या क्रेज है, इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर बनाए गए दो अनाधिकारिक फेसबुक पेजों पर भी बीस लाख लाइक हैं.

ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल उभरता है कि सोशल मीडिया में क्या वे बेआवाज हैं, जिनकी आवाज सबसे ज्यादा मुखर होनी चाहिए. व्यक्तिगत रूप से वैचारिक बहसों की अगुआई कर रहे जातीय और धार्मिक समूहों के स्वघोषित प्रतिनिधियों के रहते ऐसा सोचना भी मुश्किल है.

हर रंग और हर शक्ल की अपनी-अपनी खुली या बंद दुनिया है और सब ओर सोशल मीडिया का सिर्फ एक ही फॉर्मूला लागू होता है. इस ‘‘सोशल युद्ध’’ में हर कोई युद्धरत है.

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